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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

देखिए जी, कब चुकेगा -गीत : डा.नागेश पांडेय 'संजय'


गीत : डा.नागेश पांडेय 'संजय'
देखिए जी, कब चुकेगा ? 
कर्ज थोड़ा इधर भी है,
कर्ज थोड़ा उधर भी है।

चुकाना है किसे कितना
पूर्णतः अस्पष्ट है,
किंतु पूरा मिले भी,
इस बात का भी कष्ट है।
कभी लगता, मूल से 
ज्यादा यहाँ तो ब्याज है,
कभी लगता ब्याज सच है,
मूल में कुछ राज है।
कभी लगता करोड़ों से
भी नहीं चुक पाएगा,
कभी लगता किसी के भी
हाथ कुछ ना आएगा।

देखिए जी, कब दिखेगा ?
हर्ज थोड़ा इधर भी है,
हर्ज थोड़ा उधर भी है।

कभी लगता खोजने के
नाम पर खुद खो गए,
कभी लगता जगाने के
नाम पर खुद सो गए।
कभी लगता मुक्त हैं हम,
कभी लगता फँस रहे।
कभी लगता स्वयं को ही
लूटकर हम हँस रहे।
कभी लगता जीत से भी
प्रीतिकर यह हार है,
कभी लगता हारकर तो
जिंदगी यह भार है।

देखिए जी, कब मिटेगा ?
मर्ज थोड़ा इधर भी है,
मर्ज थोड़ा उधर भी है।

कभी लगता-एक दूजे 
के लिए सब छोड़ दें,
कभी लगता कंटकों-सी
वर्जनायें तोड़ दें।
कभी लगता अलग करते
रास्तों को मोड़ दें,
कभी लगता अलग होती
मंजिलों को जोड़ दें।
कभी लगता आत्मघाती
बन न हम, सब कुछ सहें,
कभी लगता कह चुके हैं-
बहुत कुछ, अब चुप रहें।
देखिए कैसे निभेगा ?
फर्ज थोड़ा इधर भी है
फर्ज थोड़ा उधर भी है।

देखिए जी, कब चुकेगा ?
कर्ज थोड़ा इधर भी है,
कर्ज थोड़ा उधर भी है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. कभी लगता मुक्त हैं हम,
    कभी लगता फँस रहे।
    कभी लगता स्वयं को ही
    लूटकर हम हँस रहे...

    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति । आपकी रचना पढना एक सुखद अनुभूति रही ।

    .

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।