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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

विश्वास तुमने दृढ़ किया




गीत :नागेश पांडेय 'संजय '
आज फिर विश्वास तुमने दृढ़ किया है।

आज संशय ने हृदय की देहरी पर
बैठकर मुस्कान कुछ ऐसी बिखेरी,
अकंपित लौ नेह की कुछ कँपकपाई
यों लगा जो लड़खड़ाई साध मेरी।
किंतु तुमने भ्रमित मन के कटघरे में
कौंधते हर प्रश्न का उत्तर दिया है।

ठीक समझीं तुम कि मैं डरता बहुत हूँ,
क्या करूँ है चोट खाई बहारों से।
सूर्य से उपहार में मुझको मिला तम,
इसलिए भयभीत रहता सितारों से।
वर्तिका-सी ही सही पर जलीं तो तुम
और उर में ज्योति सागर भर दिया है।

कामनाओं की चदरिया फट न जाए,
इसलिए था रख दिया उसको तहाकर।
ओढ़ने को था तुम्हारा नाम काफी
फिर रहा था उसे सीने से लगाकर।
किंतु कोरे पत्र पर हस्ताक्षर कर,
मुझे तो तुमने अनोखा वर दिया है।

मुझे तुमसे चाहिए कुछ भी नहीं, सच!
खुश रहो तुम सर्वदा यह कामना है।
हाँ, कभी गिरने लगूँ यदि नेह-पथ से
तो हमारा हाथ तुमको थामना है।
और साथी! मैं गिरूँगा भी नहीं अब,
यह हुनर मुझमें तुम्हीं ने भर दिया है।

10 टिप्‍पणियां:

  1. आज संशय ने हृदय की देहरी पर
    बैठकर मुस्कान कुछ ऐसी बिखेरी,
    अकंपित लौ नेह की कुछ कँपकपाई
    यों लगा जो लड़खड़ाई साध मेरी।
    किंतु तुमने भ्रमित मन के कटघरे में
    कौंधते हर प्रश्न का उत्तर दिया है।
    bahut badhiyaa

    जवाब देंहटाएं
  2. सूर्य से उपहार में मुझको मिला तम,
    इसलिए भयभीत रहता सितारों से।

    बहुत बढ़िया .

    जवाब देंहटाएं
  3. मुझे तुमसे चाहिए कुछ भी नहीं, सच!
    खुश रहो तुम सर्वदा यह कामना है।
    हाँ, कभी गिरने लगूँ यदि नेह-पथ सेतो
    हमारा हाथ तुमको थामना है।
    और साथी! मैं गिरूँगा भी नहीं अब,
    यह हुनर मुझमें तुम्हीं ने भर दिया है।
    बहुत खुबसूरत |

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे तुमसे चाहिए कुछ भी नहीं, सच!
    खुश रहो तुम सर्वदा यह कामना है।
    हाँ, कभी गिरने लगूँ यदि नेह-पथ से
    तो हमारा हाथ तुमको थामना है।
    और साथी! मैं गिरूँगा भी नहीं अब,
    यह हुनर मुझमें तुम्हीं ने भर दिया है।


    vishwaas ka diyaa yun hi jalta rahe....aabhar

    जवाब देंहटाएं
  5. कामनाओं की चदरिया फट न जाए,
    इसलिए था रख दिया उसको तहाकर।
    ओढ़ने को था तुम्हारा नाम काफी
    फिर रहा था उसे सीने से लगाकर।

    ....बहुत सार्थक सोच...सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति..

    जवाब देंहटाएं

भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।