डा. नागेश पांडेय 'संजय' का साहित्य संसार
मुक्तक : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
नेह घट हैं पिता, एक वट है पिता;
आत्मज के सदा ही निकट है पिता।
मन भँवर में कभी भी फँसा तो लगा,
भाव है, नाव हैं, एक तट है पिता।
भावों की माला गूँथ सकें,वह कला कहाँ !वह ज्ञान कहाँ !व्यक्तित्व आपका है विराट्,कर सकते हम सम्मान कहाँ।उर के उदगारों का पराग,जैसा है-जो हैअर्पित है।
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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।