दर्द
डा. नागेश पांडेय ‘संजय‘
पत्नी के कानों मे बड़ी-बड़ी झुमकी देख के बेचारा पति सन्न रह गया.
पत्नी तो यह उम्मीद लगाए बैठी थी कि आज वो चौंक कर उसे गले लगा लेंगे. मगर...पति ने आंखें बड़ी कर के पूछा, ‘‘ये तुम कहां से लाई ?''
पत्नी ने मुँह बिचकाया, ‘‘घबड़ाओ मत. न तो उधार लिए हैं और न ही चुरा कर लाई हूं.''
आर्थिक रूप से विवश और असमर्थ पति थोड़ा मिमिया उठा, ‘‘नहीं मेरा मतलब था कि इतना मंहगा सेट ...!''
‘‘अरे बाबा नकली है. आज बाजार में देखा तो केवल सौ रुपये में ले लिया. खुश....''
‘‘नहीं, खुश तो मैं तुम्हारी आंखों में खुशी देख कर हूं. क्या करूं, अपनी तो हिम्मत ही नहीं पड़ी कि तुम्हें....‘‘ यह कहते हुए पति के जेहन में ज्वेलरी को लेकर पिछले 15 साल की चिक-चिक भी उभर आई थी.
‘‘चलो अब तो मैं तुम्हे नकली जंजीर भी दिला दूंगा.‘‘
‘‘जानती हूं, नकली ही दिलाओगे.''
‘‘तो क्या जानेमन, मैं तो असली हूं.‘‘ पति जैसे कातर हो चला था.
कुछ दिनों के बाद पति ने वादा निभाया. दोनों बाजार गए.
जंजीर लेकर लौट रहे थे. अचानक एक बाइक तेज स्पीड से आई और बदमाश कान से झुमकी नोच कर भाग गया.
पत्नी चीख उठी. आंखों से आंसू बह चले. भीड़ जमा हो गई.
पति ने समझाया, ‘‘अरे, क्यों रोती हो ? ज्वेलरी नकली थी.''
पत्नी ने कान से हाथ हटाया. बहुत खून बह रहा था.
बोली, ‘‘...लेकिन दर्द असली है.''
■ डा. नागेश पांडेय ‘संजय'
(यह लघुकथा 'हंस' मासिक के अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित हुई थी।)
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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।