जाने कितनी छवियों से संपृक्त लगी हो तुम! गरम थपेड़ों में तुम मुझको शीतल हवा लगीं, रोगग्रस्त जब हुआ, मुझे तुम मीठी दवा लगीं, अंधकार में एक दिये-सी जलती मुझे दिखीं, दुर्निवार में आशाओं-सी पलती मुझे दिखीं। निस्पृह-सी तुम दिखीं कभी आसक्त लगी हो तुम। अगर भूलकर भी रोया तो माँ-सा पुचकारा, लिया सँभाल मुझे वामा-सा, अगर कभी हारा, कभी सुता-सी जिद कर तुमने मन में मोद भरा, और बहन-सा नेह लुटाया, जब भी हृदय डरा। संबंधों को जीने में अभ्यस्त लगी हो तुम। कभी प्रभाती लगीं मुझे तुम लोरी कभी लगीं, कच्ची होकर भी दृढ़, ऐसी डोरी मुझे लगीं। प्रीति-खजाना जिससे खाली होगा नहीं कभी, ना जाने क्यों ऐसी भरी तिजोरी मुझे लगीं। मनचाही रेखाओं वाला हस्त लगी हो तुम! रसभीनी मुरली, अमृत की गागर कभी लगीं, कभी लगीं आकाश सरीखी, सागर कभी लगीं। मगहर में वृंदावन का अनुमान लगी हो तुम थकती श्वासों में प्राणों का दान लगी हो तुम। देवी जैसी दिखीं, तो कभी भक्त लगी हो तुम। |
बहुत खूबसूरत गीत ..मेरी नई पोस्ट में आप का स्वागत है....
जवाब देंहटाएंसुंदर व कोमल मनोभाव
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंवाह बढ़िया रचना।
जवाब देंहटाएंनीलम राकेश