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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

झोली जनम रीती

जिंदगी संत्रास दे जब ,
तुम मुझे मधुमास देना . 

बहारों की स्वामिनी तुम , 
नेह की हो देवदूती . 
हर्ष की प्रतिमूर्ति हो तुम , 
भाव की नदिया अछूती . 
जिंदगी जाब तृप्त कर दे ,
तब मुझे तुम प्यास देना .

कंटकों का पंथ हूँ मैं , 
और तुम अल्हड कली-सी . 
कंकडों का ढेर मैं , तुम 
मधुर मिसरी की डली-सी .
जिंदगी उपहास दे जब ,
तब मुझे तुम हास देना .

तेज धारों पर पुलिन की 
आस लेकर तिर रहा हूँ . 
लिए झोली जनम रीती 
भिखारी-सा फिर रहा हूँ .
भले कुछ देना नहीं , पर 
दान का आभास देना . 

जिंदगी मुझसे लड़ी है ,
जिंदगी से मैं लड़ा हूँ .
पराजय के वक्ष पर मैं 
वज्र पग रखकर खड़ा हूँ .
स्वयं से ही हार जाऊं .
तब मुझे विश्वाश देना . 
 * डा. नागेश पांडेय 'संजय'  

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।