गीत : डा. नागेश पांडेय 'संजय
यह मिलन वरदान भी है,
यह मिलन अभिशाप भी है।
सुखद स्वर्णिम चार दिन में
कई जीवन जी लिए,
और पल भर में हजारों
सिंधु दु:ख के पी लिए।
यह मिलन आनंद भी है,
यह मिलन अनुताप भी है।
रहे मिलते मन, मगर
तन - दूरियाँ बढ़ती रहीं।
खास हम जितना हुए,
मजबूरियाँ बढ़ती रहीं।
यह मिलन है बंद पथ भी,
यह मिलन पदचाप भी है।
मलयजी आकांक्षाओं पर
नियति के नाग हैं,
भावना के चंद्रमा पर
वेदना के दाग हैं।
यह मिलन अति मुखर भी है,
यह मिलन चुपचाप भी है।
शत्रुता-सा राग अपना-
सार्वकालिक स्मरण है।
बुद्धि की अवहेलना है,
बस, ह्रदय का अनुसरण है।
इस मिलन में पुण्य भी है,
इस मिलन में पाप भी है।
मजे की यह ठगौरी है,
स्वयं को हम ठग रहे हैं।
सो गए परिणाम, लेकिन
स्वप्न अब भी जग रहे हैं।
यह मिलन मन-देहरी पर
दमकती पग छाप भी है।
बसी मन में किसी मूरत
की मधुर आराधना है।
सिर्फ खोना लक्ष्य जिसका
यह मिलन वह साधना है।
यह मिलन खुद मंत्र भी है,
और खुद ही जाप भी है।
---सुन्दर गीत...
जवाब देंहटाएंमलयजी आकांक्षाओं पर
नियति के नाग हैं, ....क्या नियति को हम नाग मानें ..
यह मिलन वरदान भी है,
यह मिलन अभिशाप भी है। ..कौन सा मिलन स्पष्ट नहीं है..
रहे मिलते मन,मगर
तन-दूरियाँ बढ़ती रहीं। ....जैसी उलट्बांसी का अर्थ स्पष्ट नहीं होपाया..
----शायद यह अन्य रचनाओं के क्रमिक सन्दर्भ में निहित हो ..
श्रद्धेय गुप्त जी ,
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम !
आप मेरी रचनाओं पर इतना सजगता पूर्वक ध्यान केन्द्रित कर मुझे अपने अमूल्य सुझावों से अवगत करते हैं ,
मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ .
आपकी प्रतिक्रिया में चिन्हित बिन्दुओं को स्पस्ट कर रहा हूँ .
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{} 1 {}
मलयजी आकांक्षाओं पर
नियति के नाग हैं, ....क्या नियति को हम नाग मानें ..
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नियति कई-कई बार बहुत कुछ प्राप्त नहीं होने देती . आकांक्षाओं के चन्दन वन पर नाग की तरह जा पसरती है . मैं थोडा आगे की सोचता हूँ . नाग का संग भले ही महक को न रोक पाए , विष व्याप्त न होने दे किन्तु भला नागों को देख कौन सद्व्यक्ति चन्दन के पास जाना चाहेगा ? कई बार भाग्य भी ऐसा ही खेल खेलता है .
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{} 2 {}
यह मिलन वरदान भी है,
यह मिलन अभिशाप भी है।
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....वह मिलन जो चार दिन के लिए ही सही , पर आनंद के महासागर में ले गया , तभी वरदान है . ..और जिसमें परिस्थितियों के कारण जीवन भर का विरह भी कु-निश्चित हो गया है . इसलिए उसे अभिशाप की तरह देखा जा रहा है .
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{} 3 {}
रहे मिलते मन,मगर
तन-दूरियाँ बढ़ती रहीं। ...
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यहाँ घोर विवशता का भाव है .
मन जितने करीब हुए ,परिस्थितियों के कारण तन उतने ही दूर होने के लिए बाध्य होते गए .