मौन ने गढ़ी नयी भाषा,
नेह ने रचा नया इतिहास।
भाव के टूट गए सब बंध,
उदधि-सा उमड़ पड़ा विश्वास।
नयन ने कही, हृदय ने सुनी,
मधुर वह बात न भूलूँगा।
हारने की थी हममें होड़,
लुटाने की थी ललक अपार।
त्याग के शतदल खिले सहर्ष,
बिन छुए हुए एक-आकार।
जीत से अधिक प्रीतिकर लगी,
कि ऐसी मात, न भूलूँगा।
समर्पण भ्रमित, चकित अभिसार,
सु-रति के महल हो गए होम।
प्रेम का देख नया यह रूप,
समय के पंख हो गए मोम।
वासना श्लथ थी, संयम दीप्त,
अजब वह रात, न भूलूँगा।
नागेश जी,
जवाब देंहटाएंसाधु!साधु!!
शृंगार के शिखर की यात्रा करते भाव.....
कुछ उपमान अनूठे लगे....
यथा, समय के पंख हो गए मोम....
लय भंग हो रहा है एक पंक्ति में...
"त्याग के शतदल खिले सहर्ष, बिन छुए हुए एक-आकार।"
.... साथ में यहाँ अर्थ का धुंधलका भी है....
पर, अर्थ जबरन निकालकर कर खुश हुआ जा सकता है.
कवि की जिस मनोभूमि पर ये भाव अंकुरित हुए, उसका खुला चित्रण गृहस्थ-जीवन को पारदर्शी कर गया.
कविता बहुत ही सुंदर । भावनाओं का आलोड़न ,हिम सी शुभ्र धारा,प्यार का कल -कल करता झरना ,सभी तो है ।
जवाब देंहटाएंरही काव्य शैली की बात तो आत्मा के कुन्दन होने से काया भी सुंदर लगने लगती है ।