यहाँ तुम रहो जी नि:संकोच होकर,
यहाँ की सुप्यारी-दुलारी तुम्हीं हो।
वरो जो भी चाहो, करो जो भी चाहो,
समझ लो कि सर्वाधिकारी तुम्हीं हो।
नहीं कुछ कहूँगा, सभी कुछ सहूँगा,
कि जीवन डगरिया तुम्हारे लिए है।
बड़े ही जतन से गढ़ी शब्द-माला
अगर ठीक समझो तो गलहार कह लो।
पहन लो इसे तो अहोभाग्य होगा
किसी सिरफिरे का इसे प्यार कह लो।
कदाचित् तुम्हें तृप्ति का सौख्य दे दे,
सृजन की गगरिया तुम्हारे लिए है।
अगर तुम लुटाने में हो सिद्दहस्ता,
तो सुन लो गँवाने में अभ्यस्त हूँ मैं।
मगर इसको मेरा अहं मत समझना,
पराजित पथिक हूँ, बहुत त्रस्त हूँ मैं।
सताओ न अँखियाँ बरसने लगेंगी,
कि छाई बदरिया तुम्हारे लिए है।
सुखद छवि तुम्हारी बसी क्या ह्रदय में ,
लगा ये कि मैंने जगत जीत डाला .
जरा भी तुम्हारे निकट जिसको समझा ,
बिंहस कर उसी को बना मीत डाला .
जियूँगा तुम्हारे लिए देख लेना ,
कि सारी उमरिया तुम्हारे लिए है।
मेरी खामोश आँखों से ,
जवाब देंहटाएंबरस जाती है जो अक्सर ,
वो अश्कों से नहाई ,
तरोताज़ा गज़ल हो तुम.......आशीष पाण्डेय "राज़"
sundar git ...hardik badhai ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाव्यंक्ति...
जवाब देंहटाएंभावों को माला के मानकों के तरह पिरोया है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाव्यंक्ति है।