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मंगलवार, 28 जून 2011

तब जाकर ये गीत बने

गीत : डा. नागेश पांडेय ' संजय ' 
ना जाने मैं कितना रोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।

अंतर में जब धधकी ज्वाला,
पी न सका जब विष का प्याला।
अपने ही जीवन को साथी
जब अपने कंधों पर ढोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।

लगा न कुछ अब शेष रह गया,
केवल औघड़ वेश रह गया।
तुमको पाने की चाहत में
खुद को जब तिल-तिल कर खोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।

मन के सुख वीरान हुए जब,
अपने हक मेहमान हुए जब।
सपनों की टूटी किरचों को
हँस-हँस कर सीने में बोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच

    जवाब देंहटाएं
  2. bahut sundar prastuti Dr. Sahab |

    तो--
    तो फिर विलखो--
    करते रहो विलाप |
    बढाते रहो ताप|
    अपना भी और हमारा भी |
    आपको प्यारे हैं अपने आंसू --
    खुद को धोने का शौक --
    बोले इस उधेड़बुन में कैसे
    कर पाओगे रचनाएं धांसू ||--

    क्या-
    क्या चाहते हो ?
    ऐसे ही कोरा रह जाए यह कागज ||

    जवाब देंहटाएं
  3. हर्ष व जोश में भी गीत बनाते हैं भाई नागेश जी....

    जवाब देंहटाएं
  4. आदरणीय गुप्त जी , ठीक कहा आपने . .. पर हर्ष और विषाद तो अपना-अपना भाग्य है न ? आप सहित .... सभी को धन्यवाद .

    जवाब देंहटाएं

भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।