ना जाने मैं कितना रोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
अंतर में जब धधकी ज्वाला,
पी न सका जब विष का प्याला।
अपने ही जीवन को साथी
जब अपने कंधों पर ढोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
लगा न कुछ अब शेष रह गया,
केवल औघड़ वेश रह गया।
तुमको पाने की चाहत में
खुद को जब तिल-तिल कर खोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
मन के सुख वीरान हुए जब,
अपने हक मेहमान हुए जब।
सपनों की टूटी किरचों को
हँस-हँस कर सीने में बोया,
तब जाकर ये गीत बने,
तुम कहते हो और लिखो।
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चर्चा मंच
bahut sundar prastuti Dr. Sahab |
जवाब देंहटाएंतो--
तो फिर विलखो--
करते रहो विलाप |
बढाते रहो ताप|
अपना भी और हमारा भी |
आपको प्यारे हैं अपने आंसू --
खुद को धोने का शौक --
बोले इस उधेड़बुन में कैसे
कर पाओगे रचनाएं धांसू ||--
क्या-
क्या चाहते हो ?
ऐसे ही कोरा रह जाए यह कागज ||
हर्ष व जोश में भी गीत बनाते हैं भाई नागेश जी....
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुप्त जी , ठीक कहा आपने . .. पर हर्ष और विषाद तो अपना-अपना भाग्य है न ? आप सहित .... सभी को धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंNyc
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