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सोमवार, 17 जनवरी 2011

कविता क्या है?





भूमिका 
कविता क्या है?
            आपके अचरज के लिए यह पर्याप्त होगा कि मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। मैं नहीं समझता कि कविता को किसी परिभाषा में बाँधा जा सकता है। भाषा, शब्द, रस, छंद, अलंकार, प्रवाह, यति, गति आदि कविता के उपादान भले हों, पर इनसे कविता नहीं लिखी जा सकती। ऐसा होता तो हर भाषाविद् कवि होता। मनीषियों ने ‘कविता क्या है?’ जैसे प्रश्न पर बड़ी मगजमारी की है। अपनी विद्वता और बौद्धिकता परोसी है किंतु कविता तो हृदय की संगिनी है। कविता का सीधा संबंध हृदय की अनुभूति और अभिव्यक्ति से है। फिर भला बुद्धि  से उसका क्या सरोकार ? कविता के लिए किसी चमत्कार की आवश्यकता नहीं है, वरन् कविता स्वयं में एक चमत्कार है। हृदय जिस शाब्दिक प्रवाह को रोक न सके, कदाचित् वही कविता है। 
      मुझे अपने एक कवि मित्र सुखदेव पांडेय की यह पंक्तियाँ कविता के सामान्य अभिज्ञान के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण लगती हैं - आत्मा जो बोलती है, तुम वही भाषा बनो। गढ़ न पाएँ शब्द जिसको, तुम वह परिभाषा बनो।
कविता की परिभाषा भी संभवतः ऐसी ही हो सकती है जिसे शब्दों में गढ़ा नहीं जा सकता। 
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कविता लिखते मुझे बाइस वर्ष हो गए। क्यों लिखता हूँ? इसका भी उत्तर मैं नहीं जानता। हाँ, यह जानता हूँ कि ऐसी स्थितियाँ बनती हैं, वेग बनता है जिसे मैं रोक नहीं पाता और वही वेग कविता बनकर फूटता है। मैं मूलतः बालकों का रचनाधर्मी हूँ। उनकी सरलता, सहजता, निश्छलता, निष्कपटता मुझे लेखन के लिए प्रेरित करती है। बालकों के लिए लेखन में कोई यश-धन नहीं है, यह मैं जानता हूँ लेकिन सब यही सोचेंगे तो भावी पीढ़ी के इन कर्णधारों के लिए कौन लिखेगा? मनोरंजन का अधिकार क्या उन्हें नहीं है? क्या बाल-जगत को कविता से अलग करके देखा जा सकता है? कई बार लोग सोचते हैं-जो बड़ों के लिए नहीं लिख पाते, बालकों के लिए लिखते हैं। ऐसा सोचना गलत है। जो मूर्तिकार वृहदाकार मूर्ति नहीं गढ़ सकता, उसके लिए छोटी मूर्ति गढ़ना तो और भी कठिन है। फिर बालकों के लिए लिखना तो ‘परकाया प्रवेश’ है। यह सबके लिए संभव ही नहीं।
कई बार शुभचिंतकों ने मुझसे कहा -‘बालकों के लिए ही लिखते रहेंगे। कुछ उनके पालकों के लिए भी लिखिए।’ कुछ ने यह भी कहा-‘अब तो बड़े हो जाइए।’ सच तो यह है कि मैं बड़ा होना ही नहीं चाहता-बड़े न हूजे गुनन बिन...। तथापि बड़ों के लिए लिखी अपनी कुछ कविताओं को लिखने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाया, बस यही उनका सृजन - हेतु है।
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कविता अंततः कविता है। उसके कई रूप हो सकते हैं - गीत, मुक्तक, दोहा, अतुकांत...। किंतु कविता कविता है। उसकी पहचान यह है कि वह आपका हृदय छू ले। इस ब्लाग पर जो रचनाएँ आपका हृदय छू सकें, बस उन्हें ही आप कविता मानिएगा।
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ये कविताएँ ‘नेह’ की कविताएँ हैं। प्रेम को मैं ‘नेह’ कहना ज्यादा पसंद करता हूँ। इनमें नेहानुभूति है-नेहाभिव्यक्ति है। नेह के लिए अत्यापेक्षित करुणा, श्रद्धा , त्याग, समर्पण,  आशा, विश्वास, संवेदना, लगाव, स्मरण आदि इनमें रचा-बसा है। एक तरह से नेह अपनी पूर्ण पराकाष्ठा के साथ इनमें मुखरित हुआ है। 
         कोई किसी के बिना जी न सके-यह नेह का एकांगी रूप है। नेह पूर्ण वैभव के साथ तब उद्भाषित होता है जब कोई किसी के बिना मर न सके।
नेह पाने का नहीं, कदाचित् खोने का नाम है। हर पल, हर क्षण किसी को मन कुटिया में बसाए रखने का नाम है। स्मरण नेह नहीं-विस्मरण के भरसक प्रयत्न की असफलता का नाम नेह है। अपना हित-अपनी कामनाओं की पूर्ति नेह नहीं है, दूसरे के हित को अपना हित मानकर उसके लिए स्वयं को उत्सर्ग कर देना नेह है।
हिंदी में नेहपरक काव्य पर्याप्त हैं। बहुत उत्कृष्ट भी। साहित्य जगत उससे सुवासित है।
मेरा ब्लाग  तो एक प्रसून की भाँति है।
इसकी गंध आपको किंचित भी आह्लादित कर सके, तो मेरे हृदय को अपार सुख मिलेगा... और आनंद भी।
- नागेश पांडेय ‘संजय’

3 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी जानकारी मिली....

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    'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छी जानकारी मिली....

    ____________________
    'पाखी की दुनिया' में आपका स्वागत है.

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।