ओ, पंथ पथरीले
ओ, पंथ पथरीले
बहुत प्रिय हो मुझे तुम,
बहुत प्रिय!
हाँ, उतने ही
जितना प्रिय है मुझे
अपना स्नेह-भाजन,
और इसलिए भी
प्रिय हो तुम मुझे
क्योंकि
तुम तो पथ हो
मेरे नेह-भाजन के।
सच कहूँ तो -
तुम्हारा पथरीला होना
मुझे गर्वित करता है
काश ! तुम कँटीले भी होते,
कुछ सँकरे भी
और थोड़ा ऊबड़-खाबड़ भी
और... और थोड़ा
उतार-चढ़ाव भरे भी
हाँ, हाँ ठीक
मेरे जीवन की तरह
यदि तुम होते, ओ पंथ पथरीले।
सच! अपने नेह भाजन के साथ
तुम्हारा आश्रय लेकर
मेरी अल्पकालिक सहयात्रा
हो जाती कितनी सुखद।
कितना प्रीतिकर होता
तुम्हारा कँटीला होना -
चलते-चलते अचानक
कोई काँटा चुभता हमारे
;नहीं मेरे
और हम कुछ देर के लिए
ठहर जाते,
अयाचित उस काँटे को
निकालने का प्रयास करते
और काँटा तो निकलता ही,
फिर हम चल पड़ते
मगर धीरे-धीरे।
तुम्हारा सँकरा होना भी
कितना आह्लादकारी होता
भीड़ में ठिठकते - रुकते
रुकते फिर चलते,
संक्षिप्त यात्रा
कुछ तो लंबी होती न!
तुम होते ऊबड़-खाबड़
चलते-चलते
लगती अचानक ठोकर हमारे
;नहीं मेरे
और हम बैठ जाते,
दर्द कुछ होता
कुछ यों ही बना लेता झूँठ-मूँठ
जैसे बनाता था बचपन में
रेत के घरौंदे
और कुछ देर के बाद
दर्द ढह जाता
हम चल पड़ते पुनः।
उतार-चढ़ाव भरे भी तो नहीं हो तुम-
होते तो
मजेदार हो जाती सहयात्रा,
हम चढ़ते और हाँफते
एक-दूजे को ताकते
मौन नयन परस्पर पूछते -
‘थोड़ा रूकें ?’
और हम ठहरते
सुस्ताते।
कुछ सुनते कुछ सुनाते
फिर आता उतार
गति आती पगों में
और हम उस गति को
बाँधने की कोशिश करते।
बढ़ते कदम रोकते
कि कहीं गिर न जाएँ।
किंतु ऐसा कुछ भी नहीं होता,
बड़े सहज, उदार
और कृपण भी हो तुम।
अरे! कुछ नहीं तो
थोड़े लंबे ही होते तुम
ओ, पंथ पथरीले।
तुम्हारा पथरीला होना
हमारी गति प्रभावित नहीं करता,
धीरे चलने की सारी कोशिसें
नाकाम हो जाती हैं
रास्ता बहुत जल्दी कट जाता है,
फिर भी
तुम मुझे बहुत प्रिय हो
ओ, पंथ पथरीले।
डा. नागेश पांडेय सुंदर कविता
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