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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

खुश रहो तुम

खुश रहो तुम, आज से मैं,  मुस्कुराना छोड़ता हूँ।

पीर से जब हृदय मेरा कसमसाया, मैं हँसा,
जब पुराना जख्म कोई याद आया, मैं हँसा।
जिंदगी से शिकायत मैंने कभी की ही नहीं,
वक्त ने जब आत्मा पर कहर ढाया, मैं हँसा।
किंतु दुःख की डाल पर अब 
चहचहाना छोड़ता हूँ।

टीस है, देखा मुझे तुमने सदा संदेह से,
क्या कभी भी मिल सके मुझसे अजूठे नेह से।
सच कहूँ तो प्रेम करना ही तुम्हें आया कहाँ ?
प्रेम होता प्राण से, तुमने किया पर देह से।
खुश रहो तुम आज से शिकवे 
सुनाना छोड़ता हूँ।

दुख भरी ही सही लेकिन बदलियाँ छाती रहें,
उगी फसलों को सता, सुख बिजलियाँ पाती रहें।
कंटकों की क्यों करें परवाह ? फूलों के लिए
मौन होकर ही सही पर तितलियाँ गाती रहें।
और मेरी क्या ... ! 
कुँआरे गीत गाना छोड़ता हूँ।

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।