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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

प्रीति उद्यापित न करना

नेहव्रत रखना न रखना किंतु साथी!
हो सके तो प्रीति उद्यापित न करना।

विवशताओं को सहज स्वीकार ही लो
और नव कर्त्तव्य  को सादर सँभालो।
दशा मेरी तुम्हें निश्चित कष्ट देगी,
इसलिए मेरी तरफ मत दृष्टि डालो।
मगर मेरी मूर्ति जो मन में बसी है,
हो सके तो उसे विस्थापित न करना।

आश्रय को समझकर अधिकार मैंने
राम जाने भूल की या धृष्टता की।
कौन मानेगा हुआ जो अनकिया था,
सुनिश्चित दैवीय कोई संविदा थी।
नियति ने चाहा अगर तो फिर मिलेंगे,
मगर मन की चाह विज्ञापित न करना।

यह जगत तो लकीरों का पुजारी है
आत्मा का स्वर भला यह क्या सुनेगा ?
व्यर्थ के आडंबरों का अनुकरण कर,
तीक्ष्ण शूलों की सदा चादर बुनेगा।
किंतु मर्माहत न होना और साथी,
आत्मा को व्यथा से शापित न करना।

देह में तुम बस रहे हो प्राण बनकर,
है किसी में शक्ति तुमको छीन पाए ?
मृत्यु से भी मैं नहीं भयभीत किंचित,
आत्मा में हूँ तुम्हें सादर सजाए।
शाश्वत इस प्रीति के अमृत्व को तुम
क्षणिक कष्टों से कभी मापित न करना।

नेहव्रत रखना न रखना किंतु साथी!
हो सके तो प्रीति उद्यापित न करना।

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।