ये निर्गंधी सुमन सरीखे
गीत हमारे,
पाकर स्वर-रस-गंध तुम्हारी,
महक उठे हैं!
मैंने तो बस मौन भाव से
गीत रचे थे,
और हमारी धुँधली यादें
थीं इनका घर।
साथी! यह तो तेरे अधरों की
माया है,
आज जगत कह रहा
इन्हें अनमोल धरोहर।
नेह-लहर सा इस जीवन में
तुम क्या आए,
प्रणयन के तट-बंध हर्ष से
बहक उठे हैं।
कब मेरे अधरों पर थी
स्मित रेखाएँ ,
और कहाँ उल्लास
हृदय को सरसाता था ?
गहन विषाद और पीड़ा से
मन आहत था,
जीवन में मधुमास कहाँ कुछ
कर पाता था ?
बिना छुए ही तुमने
क्या कर डाला साथी!
आशा के हिमखंड अग्नि से
दहक उठे हैं।
मन का भेद न कहीं
लोक-अर्पित हो जाए,
सोच-सोचकर मन मेरा
कुछ अकुलाता है।
तुमसे ऐसी प्रीति जगी है,
अब अर्पण में
सारा जीवन भी नजरों में
कम आता है।
मन-पिंजरे से
मुक्त हुए हैं प्रेम-पखेरू
विचरेंगे उन्मुक्त गगन में,
चहक उठे हैं।
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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।