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रविवार, 18 दिसंबर 2011

उर में कितने भाव सँजोए(गीत) : नागेश पांडेय 'संजय'


गीत : नागेश पांडेय 'संजय' 
चित्र : रामेश्वर  वर्मा 
उर में कितने भाव सँजोए
पर कहने की कला न आई ।
अत: उचित है मन की भाषा
पढ़ने का अभ्यास कीजिए !

इच्छाओं का सागर मन में 
सदा हिलोरे भरता आया,
किंतु बाँध ने सदा छला है, 
कहाँ प्रयत्न सफल हो पाया ?
भाव अव्यक्त रहे, अधरों पर 
रही सदा खामोशी छाई,
अत: उचित है जो कहता हूँ
बस, उस पर विश्वास कीजिए!

जीवन का उत्कर्ष सर्वदा 
लड़ता आया संघषों से,
हार न की स्वीकार उपक्रम 
यही चल रहा है वर्षों से।
नयन अश्रुपूरित हो आए 
जब हँसने की बारी आई ,
अत: उचित है मुझे विश्रंखल 
 देख न यूँ परिहास कीजिए!

एक तुम्हीं हो जिसमें मैंने 
आशाओं का दर्पण देखा,
बाकी सब लिप्सा प्रेरित थे 
तुममें मात्र समर्पण देखा
मेरे विश्वासों का शैशव 
पाए संवर्धित तरुणाई ,
अत: उचित है इस शैशव का
प्रिये ! समग्र विकास कीजिए!

नाम तुम्हारे लिख दी मैंने 
इस जीवन की खुशियाँ सारी,
तुम आओ तो जीवन महके,
तुम खुशियों की केसर-क्यारी।
मन के वृंदावन में सुख की 
मधुरिम मुरली पड़े सुनाई ,
अत: उचित है रास कीजिए,
ऐसे नहीं निराश कीजिए।
यह गीत उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान  की मासिक पत्रिका 'अतएव'  के सितम्बर, 1997 अंक में अमर गीतकार भारत भूषण के साथ प्रकाशित हुआ था. 

4 टिप्‍पणियां:

भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।