नेह रुत
ऐसे ढलेगी ?
राम जाने 
चल पड़े
कब हम 
प्रणय की राह पर,
रोक भी 
खुद को
कहाँ पाए
निरंतर चाहकर!
क्या पता था 
चाहतें 
हमको छलेंगी ?
क्या पता था, 
भावना के
सिंधु में 
गोते बहुत हैं ?
क्या पता था? 
बाद हँसने के
नयन 
रोते बहुत हैं
क्या पता था 
प्रीति ये 
इतना खलेगी ?
मिल रहे 
मन से निरंतर,
मत कहो 
मजबूर हैं,
एक पल 
के लिए भी क्या
हो सके 
हम दूर हैं ?
प्रेम की 
यह ज्योति 
जीवन भर जलेगी।

 
 
सुन्दर रचना...
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