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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मेरा तो संसार तुम्हीं हो

जीवन का आधार तुम्हीं हो,
साथी! मेरा प्यार तुम्हीं हो।

तुम नयनों में बसी हुई हो,
इसीलिए यह मन मधुमय है।
तुम श्वासों में रची हुई हो,
इसीलिए यह तन गतिमय है।
सच तो यह है, मन का-तन का
मनभावन श्रंगार  तुम्हीं हो।

तुम सुखगंधा, तुमको पाकर,
सूना जीवन महक रहा है,
तुमने उर को दिया आश्रय,
इसीलिए उर चहक रहा है।
तुमको छोड़ कहाँ अब जाऊँ ?
मेरा तो घर-द्वार तुम्हीं हो।

जाने किस नाते के बल पर,
तुमसे सब कुछ कह लेता हूँ।
खुद को सम्मानित पाता हूँ
अपनी रौ में बह लेता हूँ।
मेरी खातिर सदा खुला है,
वो खुशियों का द्वार तुम्हीं हो।

क्या जानूँ मैं पूजन, अर्चन,
वंदन, सुमिरन क्या होता है ?
मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा
मंदिर पावन क्या होता है ?
क्या जानूँ मैं जगत दूसरा,
मेरा तो संसार तुम्हीं हो।

चिंतन में तुम ऐसे छाईं,
सुधि-बुधि सब कुछ भूल गया हूँ
शायद यही मोक्ष है साथी!
सागर था, हो कूल गया हूँ।
जीवन के इस पार तुम्हीं हो,
जीवन के उस पार तुम्हीं हो।

1 टिप्पणी:

भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।