बहुत हँस चुके साथी!
आओ, थोड़ा रो लें हम।
साथ तुम्हारा था तो
जीवन-जीवन लगता था,
कड़ी धूप का आँचल भी
वृंदावन लगता था।
गरम थपेड़े मधुवन का
अहसास दिलाते थे,
पथरीले पथ पर चलकर भी
हम सुख पाते थे।
लंबी दूरी कैसे बातों में
कट जाती थी,
थके हुए कदमों में कैसी
गति आ जाती थी।
अब तो विरह जमी है उर पर,
इसको धो लें हम।
इसी मोड़ पर साथी! तेरी
राह जोहता था,
तेरी खातिर मैं ’शब्दों के
सुमन’ पोहता था।
तुझे देखकर मन में कितने
सपने जागे थे,
लेकिन खबर नहीं थी, वे सब
बड़े अभागे थे।
दस्तूरों की चक्की में
अरमान पिसेंगे अब,
चोटिल होकर भरे हुए कुछ
घाव रिसेंगे अब।
आओ मिलकर सपनों की
अर्थी को ढो लें हम।
लाख करूँ कोशिश, पर मन से
नाम हटेगा क्या ?
उफन रहा सागर-सा बोलो
नेह घटेगा क्या ?
जग के सुख में ही अब अपना
सुख मानेंगे हम,
मगर लगन बदनाम न हो
यह भी ठानेंगे हम।
सुख भी तुमसे जले कि साथी,
इतना सुख पाओ।
मेरे लिए यही काफी तुम
मन से मत जाओ।
क्या खोया मत सोचें
कितना पाया, तौलें हम।
लाख करूँ कोशिश, पर मन से
जवाब देंहटाएंनाम हटेगा क्या ?
उफन रहा सागर-सा बोलो
नेह घटेगा क्या ?
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
बहुत सुन्दर भाव...
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