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शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

तुम जो अगर

जीवन में सुख सारे होते,
तुम जो अगर हमारे होते।

कदम-कदम पर जीवन के यूँ
काँटों का अंबार न होता।
मेरे उपकारों का प्रतिफल
पीड़ा का उपहार न होता।
उर में कड़वी यादों के यूँ
जलते ना अंगारे होते।

मुख पर यूँ हर समय, हर कहीं
छाया दु्रत संत्रास न रहता।
मेरे मन-कुटीर में करुणा
का आजन्म प्रवास न रहता।
इच्छाएँ वैधव्य न ढोतीं,
ना ही स्वप्न कुँवारे होते।

कालचक्र के विषधर ने जब
जी चाहा तब मुझे डसा है,
विष-रिसाव होता कैसे ? 
नस-नस में तेरा नाम बसा है।
मेरे जीवन से संबंधित
सब अधिकार तुम्हारे होते।

अब जीवन दुःख का दरिया है,
बहना इसकी मजबूरी है।
पता नहीं मरघट तट तक की
शेष अभी कितनी दूरी है ?
हम यम के स्वागत-हित उर के
खोले नहीं किवाड़े होते।

तुम जो अगर हमारे होते
जीवन में सुख सारे होते।

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।