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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

नेह का मग जगमगाओ

नेह का मग जगमगाओ, दीप धर दो,
क्या पता यह साँझ फिर आए न आए!

साँझ पर जब हवाओं के
अति कठिन पहरे लगेंगे,
दीप के कोमल हृदय पर
घाव तब गहरे लगेंगे।
आज पलकों से बुहारो, पुष्प भर दो,
क्या पता यह राह फिर भाए न भाए।

चल पड़े पग स्वयं जिस पर,
राह वह खुद ही बनी थी।
थी मुखर जो लेखनी वह
मौन के रस से सनी थी।
गीत अधरों पर सजाओ, सरस स्वर दो,
क्या पता मृदु कंठ फिर गाए न गाए।

भाव के तटबंध साथी!
टूटना अब चाहते हैं।
दृगों से जल मेघ साथी!
फूटना अब चाहते हैं।
आज जी भर कर रुलाओ, हृदय भर दो,
क्या पता फिर मन-घटा छाए न छाए।

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भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।