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रविवार, 10 जुलाई 2011

गीत : ''भले तुम पूजो मुझे''/डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
भले तुम पूजो मुझे भगवान कहकर
किंतु मैं खुद को पुजारी मानता हूँ।

हृदय-मंदिर में जलाए दीप सुधि का,
मैं तुम्हारे नाम का जप कर रहा हूँ।
किसी दिन मैं स्वयं आहुति बन जलूँगा,
मैं अभी तो मौन हो तप कर रहा हूँ।
भले तुम वर लो मुझे वरदान कहकर
किंतु मैं खुद को भिखारी मानता हूँ।

बना ली मन में  तुम्हारी मूर्ति मैंने,
इसे श्रद्धा कहो या अपराध कह लो।
धृष्टता समझो अगर तो दंड दे दो,
या कि इस अनुराग को चुपचाप सह लो।
भले तुम भूलो मुझे अनजान कहकर,
किंतु  मैं  संबंध  भारी  मानता  हूँ।

मैं  निरा  पाषाण  था,  तुमने  तराशा
और  मेरा  रूप  मनभावन  गढ़ा है।
हूँ प्रखर, संपूर्ण इसका श्रेय तुमको
क्या कहूँ यह अनुग्रह कितना बड़ा है।
भले तुम खुश हो मुझे विद्वान कहकर,
किंतु मैं खुद को अनाड़ी मानता हूँ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..प्रेमपूर्ण अहसासों का सुन्दर चित्रण..

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  2. किंतु मैं खुद को भिखारी मानता हूँ।

    बना ली मन में तुम्हारी मूर्ति मैंने,
    इसे श्रद्धा कहो या अपराध कह लो।

    भले तुम खुश हो मुझे विद्वान कहकर,
    किंतु मैं खुद को अनाड़ी मानता हूँ।

    भावपूर्ण रचना ||

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर भावों से ओत-प्रोत सुन्दर अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  4. गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर हर तराशकर लायक बनाने वाले को नमन!

    जवाब देंहटाएं

भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।