कहा था तुमने-‘कभी रुकना नहीं’,
और साथी! मैं निरंतर चल रहा हूँ।
क्या धरा, आकाश पर पग-चिन्ह मेरे,
सभी सीमाएँ मुझे पहचानती हैं।
हो चुके वीरान पथ मैंने सजाए,
दिशाएँ अच्छी तरह से जानती हैं।
मैं पथिक जग का शिरोमणि आज, साथी !
दीप्त मेरे नाम से हैं पंथ सारे।
श्रांत हो मैं ठहर जाऊँ, है असंभव,
अग्नि-लहरें चीरकर खोजे किनारे।
कहा था तुमने-‘कभी बुझना नहीं’,
और साथी! मैं निरंतर जल रहा हूँ।
कह रहा है जग मुझे, मैं अनमना हूँ,
मैं तुम्हारी प्रीति का साधक बना हूँ।
नेह-पथ पर हो पराजित, जो हुए श्लथ,
मैं उन्हीं के हृदय-हित मृदु सांत्वना हूँ।
टूटते उर को सुरीले गान देता,
क्षीणतर स्वर को नए संधान देता।
पलायन की चीर छाती जो विहँसते,
मैं उन्हें सर्वस्व अपना दान देता।
कहा था तुमने-‘कभी चुकना नहीं’,
और साथी! मैं निरंतर फल रहा हूँ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
भावों की माला गूँथ सकें,
वह कला कहाँ !
वह ज्ञान कहाँ !
व्यक्तित्व आपका है विराट्,
कर सकते हम
सम्मान कहाँ।
उर के उदगारों का पराग,
जैसा है-जो है
अर्पित है।